Saturday, 9 February 2013

मॉल की दुनिया


 मेरे बड़े से शहर मैं ,
एक छोटा सा शहर
बसता  हे शौपिंग मॉल मैं
गरीबी का मजाक उड़ाता
महंगाई  को ठेंगा दिखाता
साकेत में बसता हे वो ,
नहीं पता सामने की बस्ती मैं ,
पीने का पानी हे की नहीं ,
पर उसके फव्वारे हमेशा
चलते रहते हे ,
प्रेमी जोडियो की अटखेलियो के लिए ,
मॉल की सुरक्षा मैं तैनात ,
उस पर नजर गड़ाए
सुदूर गाँव से आया इक सिपाही ,
क्या सोचता होगा उसे देखकर ,
सोचता हूँ मैं ,
 जब माँ ने दुलार से ,
कहा की बेटा  नहीं पसंद हे तो ,
फेंक दो , उस कई चंद सौ रुपये के ,
खाने के सामान को ,
 क्या सोचता होगा वो ,
तभी नज़र पढ़ती हे शीला जी के ,
600 रुपये वाले अन्न सुरक्षा वाले
बड़े से पोस्टर पर
.. .............

Monday, 21 February 2011

उस गलियारे मैं

This post is dedicated to all my frnds attending their last lecture at IMT today........... wish u all best of luck..

कुछ ख्वाब पुरे ,
कुछ अधूरे ,
चला लिए ,
एक बार फिर ,
उस गलियारे मैं ,

बिताये हंसीं पल जहाँ ,
वो मस्ती , वो खिलखिलाहट ,
गूंजती अब भी हे जहाँ ,
यारो संग बिताये पल ,
उस गलियारे में ,

आज चेहरा मायूस ,
आँखे बोझल ,
पैर लड़खड़ाते हे ,
चलते हुए ,
उस गलियारे में ,

न जाने कब
मिले साथ फिर,
सुनाई दे आवाज फिर ,
" तेरा लेक्चर हे क्या "
उस गलियारे में ,

न जाने कब ,
फिर दबोचे कोई मुझे कहे ,
" क्यों रे ज्यादा पढ़ रहा हे ,
कल कैंटीन क्यों नहीं आया "
उस गलियारे में ,

वो गलियारा न हो जैसे ,
जीवन का अहम् हिस्सा हुआ ,
शुरू हुआ २ साल पहले ,
वो ख़त्म किस्सा हुआ ,
उस गलियारे में ,

-अर्पित सिंह परिहार

Tuesday, 1 February 2011

संशय

यह खलबली , यह हड़बड़ी अब रास आ गयी ,
लेकिन शांति हर बार चाहता हूँ ,
ख्वाबो की नुमाइश में ,
अपने किस्सों का भी कारोबार चाहता हूँ ,

धरा से उठना भी नहीं हे ,
लेकिन हाथों में आसमाँ हर बार चाहता हूँ,
ख्वाबो की नुमाइश में ,
अपने किस्सों का भी कारोबार चाहता हूँ ,

झील की ख़ामोशी से प्यार भी हे ,
लेकिन नदी सा वेग हर बार चाहता हूँ
ख्वाबो की नुमाइश में ,
अपने किस्सों का भी कारोबार चाहता हूँ ,

संशय हे तो सृजन हे ,
लेकिन फिर भी एक दृष्टिकोण हर बार चाहता हूँ ,
ख्वाबो की नुमाइश में ,
अपने किस्सों का भी कारोबार चाहता हूँ

Saturday, 25 December 2010

Tuesday, 14 December 2010

बचपन खो गया

सर से शुरू होकर,

आँखों के रास्ते,

उदासी उसके चेहरे पर थी,

गला भी भर आया था,

दिल की धड़कने तेज हो गयी,

पेट में जैसे कुछ रेंगने लगा,

पांव कपकपाने लगे,

आत्मविश्वास , मेहनत , लगन जैसी,

कुछ उल जुलूल बातें कहकर,

लोग उसे और डराने लगे,

अभी तो सांप सिड़ी भी ठीक से खेलना कहा सीखा था,

फिर सफलता की सीड़ी , कामयाबी , मंजिल जैसे,

पाठ क्यों पढ़ाने लगे,

माँ का आँचल ही उसके लिए दुनिया थी,

तो देश और दुनिया की क्यों परवाह करे वो,

उसकी छाती की गर्माहट ही तो पहचानता था बस,

फिर भला ग्लोबल वार्मिंग उसे कैसे समझ में आता,

काश वो इन सारे टेंशन को खूंटी से टांग सकता,

जैसे वो अपने बैग , कपड़ो को टाँगता हे,

बस ऐसा सोचते सोचते वो सो गया,

और एक अनजानी सुबह की तलाश में,

एक बचपन और खो गया,

Wednesday, 29 September 2010

ख्वाहिश

मौलवी गाये आरती ,
पंडित पढ़े अजान ,
खुशियाँ बांटे हम सभी ,
दिवाली हो या रमजान ,

मंदिर बने की मस्जिद बने ,
न गीता कहे न कुरान ,
सब धर्मो का लक्ष्य बस ,
इंसान बना रहे इंसान ,
-अर्पित सिंह परिहार

Tuesday, 31 August 2010

कोई सपना देख कर तो देखो

यह कविता पढने से पहले कृपा कर इस विडियो को देखे , यह एक विज्ञापन हे , विश्वास करे मैंने यह कविता इस विज्ञापन के प्रसारित होने से कई साल पहले लिखी थी , परन्तु यह विज्ञापन मैंने अभी २ दिन पहले ब्रांड मैनेजमेंट की क्लास में देखा , तो कुछ अपना सा लगा , फिर उस पुरानी किताब जिसमे में लिखा करता हूँ , उस पर से धुल हटाई तो पाया की मैंने भी कुछ साल पहले ऐसा ही कुछ लिखा था , शायद आप लोगो को पसंद आये ,





कौन कहता हे , सपने सच नहीं होते ,

एक बार सपना देख कर तो देखो,

कभी कुछ बड़ा सोच कर तो देखो ,

आसमां को हाथो में महसूस कर के तो देखो ,

तारो को जमीन पर लाना कोई बड़ी बात नहीं ,

चाँद से दोस्ती कर के तो देखो ,

हाथ खोलकर किस्मत की बातें न करो तुम ,

एक बार मुट्ठी बंद कर के तो देखो ,

माथे की लकीरे बदल जाएँगी ,

कभी दिल से कुछ छह कर तो देखो ,

रेगिस्तान में भी फुल खिला सकते हो ,

एक बार बिज बो कर तो देखो ,

अँधेरे में भी राह ढूंढ़ लोगे ,

रौशनी की आस रख कर तो देखो ,

सपने सारे सच हो जायेंगे ,

एक बार सपना देख कर तो देखो ,