Tuesday 31 August 2010

कोई सपना देख कर तो देखो

यह कविता पढने से पहले कृपा कर इस विडियो को देखे , यह एक विज्ञापन हे , विश्वास करे मैंने यह कविता इस विज्ञापन के प्रसारित होने से कई साल पहले लिखी थी , परन्तु यह विज्ञापन मैंने अभी २ दिन पहले ब्रांड मैनेजमेंट की क्लास में देखा , तो कुछ अपना सा लगा , फिर उस पुरानी किताब जिसमे में लिखा करता हूँ , उस पर से धुल हटाई तो पाया की मैंने भी कुछ साल पहले ऐसा ही कुछ लिखा था , शायद आप लोगो को पसंद आये ,





कौन कहता हे , सपने सच नहीं होते ,

एक बार सपना देख कर तो देखो,

कभी कुछ बड़ा सोच कर तो देखो ,

आसमां को हाथो में महसूस कर के तो देखो ,

तारो को जमीन पर लाना कोई बड़ी बात नहीं ,

चाँद से दोस्ती कर के तो देखो ,

हाथ खोलकर किस्मत की बातें न करो तुम ,

एक बार मुट्ठी बंद कर के तो देखो ,

माथे की लकीरे बदल जाएँगी ,

कभी दिल से कुछ छह कर तो देखो ,

रेगिस्तान में भी फुल खिला सकते हो ,

एक बार बिज बो कर तो देखो ,

अँधेरे में भी राह ढूंढ़ लोगे ,

रौशनी की आस रख कर तो देखो ,

सपने सारे सच हो जायेंगे ,

एक बार सपना देख कर तो देखो ,

4 comments:

  1. we trust ur words..
    n u knw wt, sky is the limit for u..

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  2. बहुत अच्छी लगी| धन्यवाद|

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  3. श्री अर्पित परिहार जी,

    आपने इतनी शानदार और दिल को छू लेने वाली कविता लिखी है। बेशक यह पुरानी हो, लेकिन ऐसी कविताएँ कभी पुरानी नहीं होती। आपने पाठकों को विश्वास दिलाने के लिये लिखा है कि-"विश्वास करें"-कविता पर टिप्पणियाँ पढने के बाद आपको लगता है कि जिन लोगों को आप अपनी ईमानदारी का विश्वास दिला रहे हैं, उनमें से कितने इस लायक हैं?

    जब लिखना हो तो लिखें, बिना इस बात की चिन्ता या परवाह किये कि लोग आप पर या आपकी सोच या रखना पर प्रतिक्रिया दें या नहीं दें? सोच-सोच कर या लोगों की परवाह करके लिखा गया साहित्य कभी भी सच्चा एवं जीवन्त साहित्य नहीं कहलाता है।

    अर्पित जी आपकी रचनाओं में संवेदनशीलता कूट- कूट कर भरी है। इसे और निखारें।

    आपकी अनुमति हो तो इन्हें प्रिण्ट मीडिया में भी स्थान दिलवाया जा सकता।

    शुभकामनाओं सहित।

    शुभाकांक्षी

    डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'

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